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First Divorce in India: जब एक महिला ने तोड़ा विवाह का बंधन, जानिए भारत के पहले तलाक की ऐतिहासिक दास्तान

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First Divorce in India: आज के आधुनिक युग में तलाक कोई अनसुनी बात नहीं है। लेकिन सोचिए, जब भारत में महिलाओं को अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता तक नहीं थी, तब किसी महिला ने अपने अधिकार के लिए समाज की परंपराओं को चुनौती दी हो? भारत का पहला कानूनी तलाक ऐसा ही एक ऐतिहासिक मुकदमा था, जिसने न सिर्फ समाज को झकझोरा, बल्कि नारी स्वतंत्रता की नींव भी रखी।

यह कहानी है भारत की पहली तलाकशुदा महिला रुकमाबाई राऊत की। (First Divorce in India) यह केवल एक व्यक्तिगत संघर्ष नहीं था, बल्कि ब्रिटिश भारत की न्यायिक और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध उठी एक साहसी आवाज़ थी।

भारत की सामाजिक क्रांति और महिला अधिकारों के इतिहास में रुक्माबाई राऊत(Rukhmabai Raut) का नाम विशेष रूप से सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका जन्म 22 नवंबर 1864 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक मराठी परिवार में हुआ। (First Divorce in India) बचपन में ही पिता जनार्दन पांडुरंग का निधन हो गया जिसके बाद उनकी माँ जयंतीबाई ने डॉ. सखाराम अर्जुन से विवाह किया। सखाराम अर्जुन न केवल रुक्माबाई के संरक्षक बने बल्कि उनके संघर्षों में मजबूत सहारा भी रहे। उस दौर में जब महिलाओं की शिक्षा लगभग वर्जित थी रुक्माबाई ने विज्ञान और अंग्रेज़ी में गहरी रुचि दिखाई और आगे चलकर लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसिन फॉर विमेन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। वे भारत की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टरों में से एक बनीं। (First Divorce in India) उनका जीवन बाल विवाह, महिला शिक्षा और स्वतंत्रता के अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक बन गया। उनके केस ने देशभर में सामाजिक सुधार की नई चर्चा छेड़ी और आने वाली पीढ़ियों के लिए राह तैयार की।

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First Divorce in India: बाल विवाह – एक सामाजिक बंधन

रुकमाबाई राऊत के जीवन का सबसे निर्णायक मोड़ उनका बाल विवाह था। जो मात्र 11 वर्ष की आयु में 19 वर्षीय दादाजी भिकाजी के साथ पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ था। (First Divorce in India) यह विवाह बिना उनकी सहमति के हुआ था और विवाह के बाद भी रुकमाबाई ने कभी अपने पति के साथ रहने का निर्णय नहीं लिया। उन्होंने अपनी मां और सौतेले पिता डॉ. सखाराम अर्जुन के साथ ही रहना जारी रखा। डॉ. अर्जुन न केवल उनके अभिभावक थे बल्कि उनके संघर्षों के मजबूत सहायक भी बने।

दादाजी भिकाजी के स्वभाव और जीवनशैली को लेकर ऐसा कहा जाता है कि वे शिक्षा के प्रति उदासीन और अपने जीवन में अनुशासनहीन थे। इसके विपरीत रुकमाबाई का झुकाव पढ़ाई, आत्मनिर्भरता और सामाजिक चेतना की ओर था। (First Divorce in India) इस लड़ाई में उनके पिता डॉ. सखाराम अर्जुन ने न केवल उनके निर्णय का समर्थन किया बल्कि उनकी शिक्षा और स्वतंत्रता के संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई। यह वही दौर था जब रुकमाबाई भारतीय समाज में महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों को लेकर एक मिसाल बन रही थीं।

कानूनी लड़ाई की शुरुआत

सन् 1884 में रुकमाबाई राऊत के जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने न केवल उनके व्यक्तिगत संघर्ष को सार्वजनिक बना दिया बल्कि पूरे देश में महिला अधिकारों की बहस को जन्म दिया। उसी वर्ष उनके पति दादाजी भिकाजी ने बॉम्बे हाईकोर्ट में ‘Restitution of Conjugal Rights’ यानी वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए याचिका दायर की। उस समय रुकमाबाई लगभग 20 वर्ष की थीं और उन्होंने अदालत में पूरी स्पष्टता और साहस के साथ यह कहा कि वे दादाजी के साथ नहीं रहना चाहतीं क्योंकि उन्होंने उन्हें कभी अपना पति नहीं माना। यह एक अभूतपूर्व क्षण था जब किसी भारतीय महिला ने विवाह, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और महिला अधिकारों को लेकर अदालत में इतने सशक्त रूप से आवाज़ उठाई। (First Divorce in India) उनका यह रुख न सिर्फ भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बना। यह केस भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष की एक मिसाल बन गया और रुकमाबाई एक सामाजिक चेतना का प्रतीक बनकर उभरीं।

अदालत में बहस और समाज की प्रतिक्रिया

रुकमाबाई राऊत का मुकदमा जैसे-जैसे आगे बढ़ा, यह न सिर्फ न्यायिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विवाद का केंद्र बन गया। उस दौर के रूढ़िवादी समाज, धार्मिक संगठनों और मीडिया ने रुकमाबाई के साहसिक रुख की तीव्र आलोचना हुई । (First Divorce in India) धार्मिक नेताओं ने उनके खिलाफ फतवे जारी किए, अखबारों में उनके चरित्र पर सवाल उठाए गए और उन्हें ‘असभ्य’ तथा ‘पश्चिमी विचारों से दूषित’ बताकर बदनाम किया गया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे प्रभावशाली नेताओं ने भी अपने पत्रों में उनकी कड़ी आलोचना की।

फिर भी 1885 में न्यायाधीश रॉबर्ट हिल पिनहे ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा कि किसी भी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उन्होंने स्पष्ट किया कि कानून केवल सहमति प्राप्त, परिपक्व वयस्कों पर लागू होता है और हिंदू कानून में भी ऐसे किसी जबरन संबंध की मिसाल नहीं मिलती। यह फैसला महिलाओं के अधिकारों के लिए एक बड़ा कदम माना गया। (First Divorce in India) हालांकि दादाजी भिकाजी ने उच्च न्यायालय में अपील की और 1886 में एक नए न्यायाधीश ने आदेश दिया कि रुकमाबाई को या तो पति के साथ रहना होगा या जेल जाना पड़ेगा। इस कठिन परिस्थिति में रुकमाबाई ने महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बताई। अंततः दादाजी ने कुछ धनराशि लेकर मुकदमा वापस ले लिया जिससे रुकमाबाई को कानूनी रूप से स्वतंत्रता मिल गई।

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अदालत के कठोर आदेश के बाद रुकमाबाई राऊत ने ब्रिटिश सम्राज्ञी रानी विक्टोरिया को एक मार्मिक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि उन्हें मजबूर किया गया तो वे जेल जाना पसंद करेंगी, लेकिन उस व्यक्ति के साथ कभी नहीं रहेंगी जिसे उन्होंने न तो कभी चाहा और न ही पति माना। उनका यह साहसी पत्र ब्रिटेन और भारत दोनों में व्यापक रूप से चर्चा का विषय बन गया। (First Divorce in India) कई अखबारों, महिला पत्रिकाओं और सामाजिक सुधारकों ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और रुकमाबाई को महिला स्वतंत्रता की प्रतीक के रूप में देखा। उनका यह कदम न केवल भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों को लेकर नई बहस का कारण बना बल्कि इसकी गूंज ब्रिटिश संसद तक पहुँची। यही संघर्ष आगे चलकर ‘एज ऑफ कंसेंट एक्ट, 1891’ जैसे ऐतिहासिक कानून के निर्माण में सहायक बना। जिसने बाल विवाह और महिलाओं के वैवाहिक अधिकारों से जुड़े कानूनों में सुधार की नींव रखी।

तलाक या स्वतंत्रता – न्याय की जीत

लगातार सामाजिक दबाव, अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति और रुकमाबाई राऊत के अडिग और साहसी रुख के चलते अंततः 1888 में दादाजी भिकाजी ने अदालत का मामला समझौते के आधार पर वापस ले लिया। इस समझौते के अंतर्गत रुकमाबाई ने उन्हें 2000 रुपये दिए और बदले में दादाजी ने अपने वैवाहिक अधिकारों का दावा हमेशा के लिए छोड़ दिया। (First Divorce in India) यद्यपि यह कानूनी रूप से ‘तलाक’ नहीं था लेकिन व्यवहारिक रूप से रुकमाबाई को एक विषम विवाह से मुक्ति और स्वतंत्र जीवन जीने की आज़ादी मिल गई। वे भारत की पहली महिला बनीं जिन्होंने अदालत के माध्यम से सामाजिक बंधनों को तोड़ते हुए एक असमान विवाह से अलग होने का साहसिक निर्णय लिया।

इसी वर्ष 1888 में रुकमाबाई इंग्लैंड चली गईं और लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर विमेन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। (First Divorce in India) शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने भारत लौटकर सूरत और बॉम्बे (अब मुंबई) में कई वर्षों तक महिला स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय योगदान दिया। वे न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में अग्रणी बनीं, बल्कि महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्त्रोत भी रहीं।

एक महिला के संघर्ष ने बदला कानून

रुकमाबाई राऊत का ऐतिहासिक मुकदमा न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मिसाल बना बल्कि इसने भारतीय समाज में बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया। (First Divorce in India) यही सामाजिक जागरूकता आगे चलकर 1891 में ‘एज ऑफ कंसेंट एक्ट’ के रूप में परिणत हुई। इस कानून के तहत भारत में लड़कियों के विवाह या सहमति से यौन संबंध की न्यूनतम आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई। (First Divorce in India) यह अधिनियम बाल विवाह के विरुद्ध उठाया गया पहला ठोस कानूनी कदम था। रुकमाबाई के मुकदमे के साथ-साथ बंगाल की फूलमनी देवी की दर्दनाक मृत्यु जैसी घटनाओं ने भी इस कानून को पारित करवाने में निर्णायक भूमिका निभाई। यह कानून उस दौर के पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक ऐतिहासिक परिवर्तन का प्रतीक बना।

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