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Ulajh Movie Review: जान्हवी कपूर की फिल्म को अपनों ने ही जमकर उलझाया, औरों में कहां दम था!

Published
10 महीना agoon
By
News Desk
Ulajh Movie Review: देश में बीते 40-50 साल में बिकने वाली किताबों की गिनती की जाए तो किसी भी साहित्यिक कृति से ज्यादा उपन्यास उन लेखकों के बिकते पाए जाएंगे, जिनकी कहानियों के नायक जासूस रहे हैं। सुरेंद्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश शर्मा सरीखे लेखकों ने इसमें बड़ा नाम कमाया है। जासूसी एक कला रही है और जब से कथा-कहानियों का सिलसिला शुरू हुआ है तब से ये कला चली आ रही है। जिन लोगों को सत्यकथा और मनोहर कहानियां जैसी पत्रिकाएं याद होंगी, उन्हें ये भी याद होगा कि ये अपने दौर की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिकाएं रही हैं। जैसे हॉरर फिल्मों का नाम सुनते ही दर्शकों का एक खास तबका इन्हें देखने के लिए लालायित हो जाता है, वैसे ही जासूसी कथाओं का अपना अलग ही तिलिस्म रहता है।
Ulajh Movie Review: ‘राजी’ से ‘उलझ’ तक
जंगली पिक्चर्स ने कोई छह साल पहले गर्मियों के मौसम में ही अपनी पहली जासूसी फिल्म ‘राजी’ रिलीज की थी। इस बार बारिश के मौसम में ‘उलझ’ का डीएनए भी कुछ कुछ वैसा ही है। यहां फर्क बस इतना है कि कहानी के किरदार एक दूसरे से उलझते चलते हैं और देशभक्ति की भावना का उफान लाए बिना कहानी का ‘प्रेशर’ बना रहता है। सीटी इसकी सबसे आखिर में आकर वहां बजती है, जहां कहानी का क्लाइमेक्स आता है। खानदानी विदेश सेवा अधिकारियों वाले भाटिया परिवार की युवती सुहाना नेपाल में अपनी काबिलियत का नमूना दिखाती है और इनाम में पाती है ब्रिटेन के भारतीय उच्चायोग में नंबर दो की पोजीशन। बंद गले जैसे ब्लाउज पहनकर रहने वाली सुहाना पहली नजर में ही वहां जिस मिशेलिन शेफ पर फिदा होकर सीधे उसके साथ हमबिस्तर होती है, उसका अतीत कुछ और निकलता है। बात जब तक समझ में आए कि रात भर में ही उसके साथ हुआ क्या, वह दुश्मनों के हाथों का मोहरा बन चुकी होती है। जासूसी फिल्म हो और कहानी का सिरा पाकिस्तान से न जुड़े, ऐसा होना हिंदी सिनेमा में अभी बाकी है।

परवेज की पटकथा सबसे कमजोर कड़ी
सिनेमा को ब्रिटेन में सब्सिडी भी खूब मिलती है तो कहानी और कारोबार दोनों के हिसाब से फिल्म ‘उलझ’ की सेटिंग अच्छी है। कहानी भी अच्छी है। पटकथा परवेज शेख की है और उनको अपनी ‘क्वीन’ और ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्मों से मिली शोहरत अब तक काम आ रही है। यहां ध्यान रखना ये जरूरी है कि परवेज ने ही ‘मिशन मजनू’, ‘बेलबॉटम’, ‘ब्लैकमेल’, ‘बाजार’ और ‘ट्यूबलाइट’ जैसी फिल्में भी लिखी हैं। अतिका चौहान ने फिल्म के संवादों में एक लोकप्रिय मुहावरे का लिंग परिवर्तन करने के अलावा दूसरा कोई बड़ा काम ऐसा किया नहीं है, जो फिल्म देखने के बाद हॉल से बाहर निकलते समय याद रह जाए। अपनी कमजोर पटकथा और अपने बनावटी संवादों के बोझ तले दबी फिल्म ‘उलझ’ दर्शकों के दिल तक लाने की पूरी जिम्मेदारी इसके सहायक कलाकारों ने उठाई है।
‘राजी’ रिलीज होने के साल की बारिश में ही फिल्म ‘धड़क’ से अपनी अभिनय यात्रा शुरू करने वाली जान्हवी कपूर के लिए साल 2024 काफी अहम है। फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज माही’ में उनके अभिनय की तारीफ हो चुकी है। ‘उलझ’ में भी उनका काम बेहतर होने की गुंजाइश पूरी थी। ‘देवरा’ का पहला भाग भी अगले महीने तक बड़े परदे पर आ ही जाएगा। दिक्कत यहां ये है कि बोनी कपूर जैसे निर्माता की बेटी होने के बावजूद हीरो के तौर पर उन्हें अब तक राजकुमार राव और वरुण धवन ही मिलते आए हैं। मेहनत उनकी ओटीटी पर ज्यादा देखी गई है। सिनेमाघरों तक लोग उनके नाम की वजह से भी आएं, इसके लिए जान्हवी सोशल मीडिया पर इफरात की मेहनत खूब करती हैं। फिल्म ‘उलझ’ में उनका किरदार बेहद कमजोर है। खानदानी अफसरों के घराने की एक बेटी विदेश में एक अनजान शख्स के साथ इतनी आसानी से हमबिस्तर होने चली जाएगी? समझना मुश्किल है।

मुश्किल ये भी समझना है कि एक विदेशी प्रधानमंत्री किसी धार्मिक स्थल जाए और वहां उसी समय आम श्रद्धालुओं का भी आना-जाना जारी रहे। खैरात पाने वाले कतारों में बैठे हों और आसपास प्रधानमंत्री के लिए संकट पैदा करने वाले लोग इतनी आरामतलबी से अपना काम करते रहैं, ऐसा प्रोटोकॉल के तहत होता नहीं है। फिल्म में रोशन मैथ्यू भारतीय उच्चायोग में तैनात रॉ के एजेंट बने हैं और क्लाइमेक्स में उनके असली संगठन का भी इशारा फिल्म के निर्देशक ने दिया है और इसकी सीक्वल बनाने का अपना मंतव्य भी जाहिर किया है। लेकिन, उनकी अभिनय प्रतिभा को फिल्म में देखने के लिए दर्शकों को इंटरवल के बाद तक का इंतजार करना पड़ता है।
जान्हवी को हराने में हारे गुलशन देवैया
गुलशन देवैया के अभिनय में जान्हवी कपूर को मात देने का जज्बा ज्यादा दिखाई देता है और अपने किरदार पर टिके रहने का कम। ओवरएक्टिंग में वह पकड़े भी जाते हैं। मेयांग चांग की भूमिका छोटी है लेकिन दमदार है। राजेश तैलंग के लिए बड़े परदे पर मिला ये बड़ा मौका है और फिल्म की रोल रिवर्सल की सबसे मजबूत कड़ी बनकर उन्होंने अपनी उपयोगिता भी सिद्ध करने की कोशिश की है। अली खान, आदिल हुसैन और जैमिनी पाठक के जिम्मे फ्रेम सजाने का काम रहा जिसे उन्होंने भी निभाया भी सलीके से। जितेंद्र जोशी इन सबके बीच अपना तुरुप का पत्ता फेंककर बाजी समेटने में सफल रहे हैं।

पुराने चावल से महक उठे राजेंद्र गुप्ता
और, इन सारे दमदार सहायक कलाकारों के बीच असल खेल किया है अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने। अरसे बाद वह किसी फिल्म में इतने भरे पूरे रोल में नजर आए और फिल्म अच्छी हो तो उनका काम सोने पर सुहागा से कम नहीं होता। फिल्म ‘उलझ’ की पटकथा तो इसकी सबसे कमजोर कड़ी है ही, इस पूरी फिल्म को एक अलग रुआब के साथ बनाने में भी सुधांशु सरिया ने गलती की है। मेघना गुलजार ने यही काम ‘राजी’ में नहीं किया था। उनके किरदार इसीलिए हकीकत के ज्यादा करीब दिखे थे। ‘उलझ’ में हर किरदार किसी न किसी एटीट्यूड में ज्यादा दिखता है। हां, श्रेया देव दुबे की सिनेमैटोग्राफी का एटीट्यूड जरूर प्रभावित करता है और वह भी इसलिए क्योंकि यहां प्रकाश और छाया दोनों का एटीट्यूड अपनी जगह पर बिल्कुल सही मात्रा में है। निक पॉवेल के जिम्मे आए ब्रिटेन के एक्शन दृश्य बहुत सधे हुए नहीं हैं। राजेश तैलंग और जान्हवी कपूर के बीच क्लाइमेक्स के करीब होने वाली मारपीट दोनों के किरदारों के एटीट्यूड के हिसाब से नहीं है। जोगी मलंग ने फिल्म के लिए कास्टिंग अच्छी की है लेकिन कुमार के गीत और शाश्वत सचदेव के संगीत के लिए यही बात नहीं कही जा सकती। ‘उलझ’ एक बढ़िया जासूसी फिल्म बन सकती थी, लेकिन अभी महज ये एक औसत फिल्म बनकर रह गई है।
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