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Indian Politics: ये है सत्ता का खेल! राहुल गांधी को PM बताने वाला नेता आज क्यों बना हिंदुत्व का ब्रांड? हिमंत और कपिल की कहानी

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Indian Politics: भारतीय राजनीति में सत्ता का खेल हमेशा से दिलचस्प रहा है। नेता वक्त के साथ अपने रंग बदलते हैं, विचारधारा को सत्ता की जरूरत के मुताबिक ढालते हैं। आज की तारीख में अगर हिंदुत्व का परचम सबसे ऊंचा लहरा रहा है, तो उसमें असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का नाम सबसे आगे आता है। (Indian Politics) वे अक्सर हिंदुत्व की छवि के साथ विवादों में घिरे रहते हैं। मुस्लिमों के खिलाफ बयानबाजी, मदरसों को बंद करने की बातें और कथित ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दों पर उनके तीखे बयान उनकी हिंदुत्ववादी इमेज को और मजबूत करते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि 2015 से पहले उनकी यह छवि बिल्कुल अलग थी? तब वे कांग्रेस के सेक्युलर नेता थे, जिनके बयानों में मुस्लिमों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं मिलता। क्या भाजपा की सत्ता में आने के बाद उनका ‘हृदय परिवर्तन’ हो गया? या यह सत्ता की मजबूरी है जो उन्हें हिंदुत्व का ब्रांड बनने पर मजबूर कर रही है?

Indian Politics: हिमंत बिस्वा सरमा का बदलाव, कांग्रेस से भाजपा तक

हिमंत बिस्वा सरमा का उदाहरण सबसे स्पष्ट है। कांग्रेस में रहते हुए वे असम की राजनीति में एक उदार, सेक्युलर चेहरा थे। लेकिन 2015 में भाजपा में शामिल होने के बाद उनका रूप बदल गया। अब वे खुद को हिंदू हितों का सबसे बड़ा रक्षक साबित करने में जुटे हैं। (Indian Politics) एक हालिया इंटरव्यू में जब एक बड़े चैनल के पत्रकार ने पूछा कि राहुल गांधी से क्या सीखना चाहिए, तो हिमंत गुस्से से लाल होकर बोले, “राहुल गांधी से क्या सीखना? उनमें सीखने लायक कुछ है ही नहीं। वे कोई युवा नेता नहीं हैं।” यह बयान उनकी मौजूदा हिंदुत्ववादी छवि से मेल खाता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि 2015 से पहले का उनका एक ट्वीट आज भी सोशल मीडिया पर घूमता है, जिसमें उन्होंने लिखा था: “एक दिन राहुल गांधी इस देश के प्रधानमंत्री बनेंगे।” सत्ता बदलते ही राहुल गांधी से ‘कुछ नहीं सीखना’ वाला बयान आने लगा। यह सिर्फ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति का क्लासिक उदाहरण है।

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कपिल मिश्रा का परिवर्तन, सेक्युलर से हिंदूवादी तक

इसी तरह का बदलाव दिल्ली के नेता कपिल मिश्रा में देखने को मिलता है। आम आदमी पार्टी (आप) में रहते हुए कपिल सेक्युलरिज्म के झंडाबरदार थे। उन्होंने भाजपा पर कई आरोप लगाए – सेक्युलर न होने का, देश में अराजकता फैलाने का। (Indian Politics) सरकार से सवाल उठाते, प्रदर्शन करते। लेकिन जैसे ही उन्होंने आप का दामन छोड़ा और भाजपा का थामा, हिंदुत्व का चोला ओढ़ लिया। अब वे मुस्लिमों के खिलाफ तीखे बयान देते हैं, हिंदुत्व को आगे बढ़ाने की बात करते हैं। 2020 के दिल्ली दंगों में उनका नाम प्रमुखता से आया, जहां उनके भड़काऊ बयानों को हिंसा का कारण माना गया। सेक्युलर से कट्टर हिंदू तक का यह सफर सत्ता की चाह में कितनी जल्दी पूरा हो जाता है, ये उदाहरण अकेले नहीं हैं। आज देश में ‘सबसे बड़ा हिंदूवादी नेता’ बनने की होड़ मची है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हो या असम के हिमंत बिस्वा सरमा, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी – सभी हिंदुत्व की छवि चमकाने में लगे हैं। योगी तो पहले से ही संन्यासी जीवन से निकले कट्टर हिंदुत्व के प्रतीक हैं, लेकिन हिमंत और कपिल जैसे नेता सत्ता परिवर्तन के बाद इस दौड़ में शामिल हुए।

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सत्ता का खेल

सत्ता एक ऐसी शतरंज है जो खिलाड़ियों को वक्त-वक्त पर सुर बदलने पर मजबूर कर देती है। जो कल सेक्युलर थे, आज कट्टर हो जाते हैं। यह सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति की जरूरत है। भाजपा की सत्ता में हिंदुत्व वोट बैंक का मजबूत आधार है, लिहाजा नेता खुद को उस ढांचे में ढाल लेते हैं।यह खेल नया नहीं है। भारतीय राजनीति में विचारधारा अक्सर सत्ता की गुलाम बन जाती है।

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